महाराजा मणिकुण्डल जी - परिचय
ध्यानम्:
सुगौरवर्णम्, धर्मावतरम्, सिंहासनारूढ़ किरीट भूषितम्।
पीतवस्त्रावृता मुखतेजवरणम् करबद्धमुद्रे अर्धोन्मीलित नेत्रम्।।
कर्णाभ्याम् कुण्डले, कंकणे हस्ताभ्याम् शोभितम्।
वन्दे ध्यानस्थ रामभक्तम् मणिकुण्डलम् नमामि।।
सुन्दर, गोरे रंग के, धर्म के अवतार स्वरूप मणिकुण्डल जी सिर पर मुकुट धारण कर सिंहासन पर विराजमान हैं। वे शरीर पर पीताम्बर धारण किये हुए है, दोनों हाथ प्रणाम की मुद्रा में है। प्रभु के प्रति भक्तिभाव में निमग्न उनके नेत्र अधखुले है। उनके चेहरे से तेज निकल रहा है। वे कानों में कुण्डल और हाथों में कंकण पहने हुए ध्यान मुद्रा में बैठे हैं। ऐसे प्रभु श्री राम के भक्त मणिकुण्डल जी का ह्रदय में स्मरण करते हुए उन्हें नमस्कार करता हूँ।
महाराजा मणिकुंडल महाराज का संक्षिप्त जीवन परिचय:
श्री अयोध्यावासी वैश्य वंश प्रवर्तक महाराजा मणिकुंडल महाराज का संक्षिप्त जीवन परिचय दिया जा रहा है जिससे समाज बंधुओं को जानकारी मिल सके।
सृष्टि काल से मानव धर्म को गौरवान्वित वाले महामानव समय-समय पर जन्म लेकर राष्ट्र एवं समाज को सही दिशा देते रहे हैं । वैश्य समाज में भी मनु काल से ही ऐसे महामानव अवतरित होते रहे हैं जिन्होंने सत्य,धर्म, परोपकार एवं आदर्श पथ का अनुगमन करने हेतु अपना सर्वस्व त्याग दिया किंतु क्षण मात्र के लिए भी पथ भ्रमित नहीं हुए ऐसे श्री अयोध्यावासी वैश्य वंश प्रवर्तक महाराज मणि कुंडल महाराज हैं ।
महाराज मणिकुंडल जी सौम्य व्यक्तित्व के धनी सदाचारी युगपुरुष प्रातः स्मरणीय महाराज जी का जन्म त्रेता युग में महाराजा दशरथ के शासनकाल में मणिकौशल जी की धर्मपत्नी शाकम्भरी के गर्भ से पौष पूर्णिमा को हुआ था । मणिकौशल जी अयोध्या के प्रमुख व्यापारियों में गिने जाते थे । जिस समय महाराजा दशरथ की आज्ञा अनुसार भगवान राम वन जा रहे थे उस समय मणिकौशल जी के नेतृत्व में अयोध्या के वणिकों ने भगवान राम को रोकने का काफी प्रयास किया । अंत में प्रयास निष्फल हो जाने पर वे सभी उनके साथ चल दिये ।
भगवान राम ने जब यह देखा कि अयोध्यावासी वन में भी मेरे साथ जाने हेतु दृढ़ प्रतिज्ञ है तो एक रात्रि जब सभी लोग निद्रामग्न थे, भगवान राम अपनी पत्नी सीता एवं अनुज लक्ष्मण के साथ तमसा तट पर आए और चित्रकूट पहुंच गए ।
प्रातः काल जब परिजनों ने देखा कि भगवान राम वहां से जा चुके हैं तो शोकाकुल होकर उनमें से कुछ अयोध्या वापस लौट गए इसके विपरीत कुछ लोग अपने अपने अनुमान से विभिन्न दिशाओं में चल दिए ।
जो लोग चित्रकूट की ओर गए उन्हें तो श्रीराम मिल गए अतेएव वह सब वामदा अब बांदा नामक स्थान पर प्रवास करने लगे जो कालांतर में नगर के रूप में विकसित होकर उनका स्थाई निवास बन गया । अयोध्यावासियों की कई टोलियां इधर-उधर अन्य दिशाओं में भ्रमित हो गई । नगर श्रेष्टि मणिकौशल अपने पुत्र मणिकुंडल के साथ दक्षिण दिशा की ओर चल दिए । काफी समय तक यत्र तत्र भटकने के उपरांत उनके भौवन नगर जो गोदावरी नदी के तट पर अवस्थित है, एक समृद्ध नगर था, में निवास करने की जानकारी मिलती है ।
राम वन गमन के समय मणि कौशल जी के साथ अयोध्या से चले बालक मणिकुंडल जी ने भौवन नगर में युवावस्था को प्राप्त किया । यहां पर उनकी मित्रता कई अन्य युवकों से हो गई जो विभिन्न जाति वर्ग एवं विचारधाराओं के थे । मणिकुंडल जी एक धर्म परायण, सत्यवादी, सिद्धांतवादी, पुण्य आत्मा, आस्तिक नवयुवक थे । वे अपने व्यापार में भी छल कपट एवं बेईमानी से दूर रहते थे । धर्म एवं साहित्य के कार्यों में यथेष्ट दान इत्यादि भी करते थे । उनकी उदार वृत्तियों के कारण उन्हें व्यापार में भी अत्यधिक लाभ हुआ और आर्थिक समृद्धि उनके चतुर्दिक निवास करने लगी ।
मणिकुण्डल जी के पास धन एवं आर्थिक संपन्नता देखकर उनके एक पड़ोसी कोशिक के पुत्र गौतम के मन में श्री मणिकुंडल जी का धन हरण करने का विचार आया था । उसने उन्हें विदेश व्यापार में अत्यधिक लाभ का आकर्षण दिखाकर संपूर्ण धन लेकर अन्यत्र चलने का परामर्श दिया श्री मणिकुंडल जी बातों में आ गए ।
विदेश व्यापार करते समय एक स्थान पर गौतम ने अनावश्यक विवाद करने के लिए मणि कुंडल जी से पाप, अधर्म एवं असत्य के मार्ग की प्रशंसा की इसी पर मणिकुंडल जी ने इसे निम्न प्रवृत्ति बतलाते हुए सत्य, धर्म एवं पुण्य के कार्य करने का परामर्श दिया । किंतु गौतम क्यों मानने वाला था, उसे तो विवाद का बहाना चाहिए था । मणिकुंडल जी की बातों पर गौतम क्रोधित हो गया उसने मणिकुंडल जी पर प्रहार कर उनके दोनों हाथ पैर काट दिए, इतने पर भी उसे संतोष ना हुआ, उसने उनकी दोनों आंखें फोड़ दी और श्री मणिकुंडल जी को तड़पता छोड़ कर संपूर्ण धन लेकर चला गया ।
गोदावरी नदी के किनारे उक्त स्थान पुराणों में चक्षुस्तीर्थ के नाम से वर्णित है वहां प्रत्येक शुक्ल पक्ष एकादशी को विभीषण भगवान योगेश्वर के दर्शन करने आते थे । कहते हैं कि नियमित दर्शन के कारण वे लंका के राजा बने । वहां पर हाथ, पैर और नेत्रों से विहीन मणिकुंडल जी जब ऐसी मरणासन्न स्थिति में थे उसी समय शुक्ल एकादशी होने के कारण लंकाधिपति विभीषण अपने पुत्र वैभीषणि के साथ वहां पर पधारे । तड़पते कलपते मणिकुंडल जी की करुण दशा से द्रवित हो वैभीषणि ने मणिकुंडल जी से उनकी दशा का कारण पूछा तब मणिकुंडल जी ने राम वन गमन के कारण, अयोध्या छोड़ने से लेकर, गौतम द्वारा किए गए छल तक का पूर्ण कथानक कह सुनाया ।
यह जानकर कि यह धर्म परायण अयोध्यावासी वैश्य है, और राम का भक्त है और उन्होंने अपने पिता श्री विभीषण के सहयोग से चक्षुस्तीर्थ नामक पावन स्थल में प्राप्त विशल्यकरणी महौषधि जो हनुमान जी द्वारा लक्ष्मण बूटी ले जाते समय पर्वत से गिर गई थी और वहां पर पुनः उग आई थी, के द्वारा मणिकुंडल जी को सर्वांग सुंदर रूप प्रदान किया तत्पश्चात राम नाम को सर्वत्र प्रसारित करते हुए मणि कुंडल जी देश विदेश का भ्रमण करने लगे भ्रमण करते हुए एक बार मणिकुंडल जी महापुर नमक राज्य में पहुंच गए ।
वहां के महाराजा महाबली की एकमात्र पुत्री मरणासन्न स्थिति में थी । सभी वैद्य, राज वेद्म, तांत्रिक एवं पंडितों ने जवाब दे दिया था । मानव कल्याण की भावना से वे राजदरबार गए, और राजकुमारी को स्वस्थ कर देने का आश्वासन दिया । चक्षुस्तीर्थ का महत्व कहें या राम नाम की महिमा कि विभीषण से प्राप्त दिव्य मंत्रों के साथ विशल्यकरणी देते ही राजकुमारी स्वस्थ हो गई । प्रसन्न होकर राजा ने आधा राज्य देने का प्रस्ताव मणिकुंडल जी के समक्ष रखा, मणि कुंडल जी ने कहा कि मैंने राज्य या इनाम के लोभ में राजकुमारी को स्वस्थ नहीं किया वरन् यह तो मानव होने के नाते मेरा कर्तव्य था । इस प्रकार के विस्तृत वार्तालाप से प्रभावित हो महाबली ने पूर्ण राज्य मणिकुंडल जी को दे दिया । मणिकुंडल जी ने महारूपा से विवाह कर राज्यकार्य संभाल लिया ।
महाराजा होने के बाद भी मणिकुंडल जी के विचारों प्रवृत्तियों अथवा प्रकृति में कोई परिवर्तन नहीं आया । उसी सत्य, निष्ठा, धर्मपरायणता, न्यायप्रियता के आदर्श आप जीवन के अंत तक व्यवहार् किए रहे । आपकी चर्चा सुनकर अन्यत्र बसे अयोध्यावासी वैश्य भी आपके राज (वर्तमान सौराष्ट्र महाराष्ट्र) आकर बस गए ।(वर्तमान में अयोध्यावासी वैश्य समाज के लोग पूरे भारत में एवं विदेशों में भी निवासरत है) आपका जीवन सत्य, असत्य, धर्म, अधर्म, पाप, पुण्य, के संघर्ष एवं उदात्त्वृत्तियों के विजय का प्रतीक है ।
हम सभी को इस बात पर गर्व करना चाहिए कि ऐसे महापुरुष हमारे पूर्वज थे । हममें उन्हीं महापुरुषों का रक्त संचारित है । वस्तुत: गौरवमय अतीत की नींव पर वर्तमान का भवन निर्मित होता है, जिसमें उन्नत भविष्य की संभावना बलवती होती है । आप संपूर्ण वैश्य समाज ही नहीं वरन भारत देश की निधि है । हमें ऐसे युग पुरुष की जयंती प्रत्येक वर्ष पौष पूर्णिमा को मनानी चाहिए, तथा उनके जीवन से सद्कर्मों की प्रेरणा लेकर अपने जीवन को कृतार्थ करना चाहिए एवं समाज तथा राष्ट्र के नैतिक उत्थान में सहभागी होना चाहिए ।

